Sunday, July 24, 2016

मुरली 24 जुलाई 2016

24-07-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:22-10-81 मधुबन

“सदा दाता के बच्चे दाता बनो”
आज दया के सागर अपने मास्टर दया के सागर बच्चों से मिलने आये हैं। भक्त लोग बापदादा और आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का दयालु-कृपालु नाम से गायन करते हैं। बापदादा से वा आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं से सर्व धर्म की आत्मायें एक मुख्य चीज जरूर चाहते हैं। ज्ञान और योग की बातें हर धर्म में अलग-अलग हैं, जिसको कहा जाता है मान्यतायें। लेकिन एक बात सब धर्मों में एक ही है, सर्व आत्मायें दया वा कृपा जिसको वे अपनी भाषा में ब्लैसिंग कहते हैं, यह सब चाहते हैं। आप सभी आत्माओं से अब लास्ट जन्म में भी आपके भक्त यही चाहते हैं– जरा-सी कृपा दृष्टि कर लो। जरा हमारे ऊपर भी दया कर लो। सर्व धर्मों की मूल निशानी “दया” मानते हैं। अगर कोई भी धर्मा आत्मा दयालु नहीं वा दया दृष्टि वाला नहीं तो उसको धर्मा नही मानते हैं। धर्म अर्थात् दया। तो आज बापदादा दयालु और कृपालु कहाँ तक बने हैं– वह देख रहे हैं। सभी ब्राह्मण आत्मायें अपने को आदि सनातन प्राचीन धर्म की श्रेष्ठ आत्मायें अर्थात् धर्मात्मा मानते ही हो। तो हे धर्मात्मायें, आप सबका पहला धर्म अर्थात् धारणा है ही स्व के प्रति, ब्राह्मण परिवार के प्रति और विश्व की सर्व आत्माओं के प्रति दया भाव और कृपा दृष्टि। तो अपने आप से पूछो कि सदा दया की भावना और कृपा दृष्टि सर्व के प्रति रहती है वा नम्बरवार रहती है? दया भाव वा कृपा दृष्टि किस पर करनी होती है? जो कमजोर आत्मा है, अप्राप्त आत्मा है, किसी-न-किसी बात के वशीभूत आत्मा है, ऐसी आत्मायें दया वा कृपा की इच्छा रखती हैं वा उनकी इच्छा न भी हो तो आप दाता के बच्चे उन आत्माओं को शुभ-इच्छा से देने वाले हो। सारे दिन में जिन भी आत्माओं के सम्पर्क में आते हो, चाहे ज्ञानी, चाहे अज्ञानी, सबके प्रति सदा यही दृष्टि रहती है वा दूसरी-दूसरी दृष्टि भी रहती है? चाहे कोई कैसा भी संस्कार वाला हो लेकिन यह दया वा कृपा की भावना वा दृष्टि पत्थर को भी पानी कर सकती है। आपोजीशन वाले अपनी पोजीशन में टिक सकते हैं। स्वभाव के टक्कर खाने वाले ठाकुर बन सकते हैं। क्रोध-अग्नि, योग-ज्वाला बन जायेगी। अनेक जन्मों के कड़े हिसाब-किताब सेकण्ड में समाप्त हो नया सम्बन्ध जुट जायेगा। कितना भी विरोधी है– वह इस विधि से गले मिलने वाले हो जायेंगे। लेकिन इन सबका आधार है– “दया भाव”। दया भाव की आवश्यकता ऐसी परिस्थिति और ऐसे समय में है! समय पर नहीं किया तो क्या मास्टर दया के सागर कहलायेंगे? जिसमें दया भाव होगा– वह सदा निराकारी, निर्विकारी और निरहंकारी होगा। मंसा निराकारी, वाचा निर्विकारी, कर्मणा निरहंकारी। इसको कहा जाता है दयालु और कृपालु आत्मा। तो हे दया से भरपूर भण्डार आत्मायें, समय पर किसी आत्मा के प्रति दया भाव की अंचली भी नहीं दे सकते हो? भरपूर भण्डार से अंचली दे दो तो सारे ब्राह्मण परिवार की समस्यायें ही समाप्त हो जाएं। संस्कार तो आप सबके अनादि, आदि, अविनाशी दातापन के हैं। देवता अर्थात् देने वाला। संगम पर मास्टर दाता हो। आधाकल्प देवता देने वाले हो। द्वापर से भी आपके जड़ चित्र देने वाले देवता ही कहलाते हैं। तो सारे कल्प के संस्कार दातापन के हैं। ऐसे दातापन के संस्कार वाली हे सम्पन्न आत्मायें, समय पर क्यों नहीं दाता बनते हो? लेने की भावना दाता के बच्चे कर नहीं सकते। यह दे तो मैं दूँ, यह देवता नहीं लेवता हो गये। तो कौन-सी आत्मायें हो? देवता वा लेवता? हे इच्छा मात्रम् अविद्या आत्मायें, अल्पकाल की इच्छा खातिर देवता के बजाय लेवता नहीं बनो। देते जाओ, देते हुए गिनती नहीं करो। मैंने इतना किया, इसने नहीं किया, यह गिनती करना दातापन के संस्कार नहीं! फ्राकदिल बाप के बच्चे यह बातें गिनती नहीं करते। भण्डारे भरपूर हैं, गिनती क्यों करते हो? सतयुग में भी कोई हिसाब-किताब गिनती नहीं रखते। रॉयल फैमिली, राज्यवंशी मास्टर दाता होते हैं। वहाँ यह सौदेबाजी नहीं होगी। इतना दिया, इतना किया। जो जितना ले उतना भरपूर बन जाए। राज्यवंश अर्थात् दाता का घर। तो यह संस्कार भरने के हैं। कहाँ भरने हैं? क्या सतयुग में? अभी से ही भरने हैं ना! यहाँ भी बाप से सौदेबाजी करते हैं। बाप ने हमको पूछा नहीं, बाप ने हमसे किया नहीं। और आपस में तो सौदेबाजी बहुत करते हैं। शाहनशाह बनो, दाता के बच्चे दाता बनो। इसने किया तब मैंने यह किया, इसने दो कहा तब मैंने चार कहा। इसने दो बारी कहा वा किया मैंने एक बारी किया। यह हिसाब-किताब दाता के बच्चे कर नहीं सकते। कोई आपको दे न दे, लेकिन आप देते जाओ, इसको कहा जाता है दयाभाव वा कृपा दृष्टि! तो हे दयालु-कृपालु आत्मायें, देने वाले बनो। समझा। बापदादा के पास सब बच्चों के खाते हैं। सारे दिन में कितना समय दयालु वा कृपालु बनते हैं और कितना समय देने की भावना के बजाए लेने की भावना रखते हैं, यह सारे दिन की लीला बापदादा भी देखते हैं। जैसे आप लोगों ने यह वीडियो सेट लगाया है तो देखते भी हो और सुनते भी हो, तो बापदादा के पास भी हरेक के लिए टी.वी. सेट है। जब चाहें तब स्वीच आन करें। यह हैं सेवा के साधन और वह है बाप-बच्चों के हालचाल का साधन। वैसे तो अन्त में यह सब साधन समाप्त हो जायेंगे। यह वीडिओ नहीं काम में आयेगा लेकिन विल पावर का सेट काम में आयेगा। लेकिन साइन्स वाले बच्चों ने जो इतना समय, एनर्जा, मनी खर्च करके साधन बनाया है, बच्चों की मेहनत बाप की सेवा में लग रही है इसलिए बाप भी बच्चों की मेहनत देख खुश होते हैं कि सेवा के साधन अच्छे बनाये हैं! फिर भी हैं तो बच्चे ना! बाप, बच्चों की इन्वेन्शन देख खुश तो होंगे ना! जिस भी कार्य में लगे हुए हैं उसी कार्य में सफलता पा रहे हैं। चाहे अल्पकाल की हो लेकिन सफलता तो है ना इसलिए बापदादा वीडियो सेट को नहीं देखते लेकिन उन बच्चों को देखते हैं। अच्छा। इसी साधन द्वारा देश-विदेश के बच्चे चारों ओर देखेंगे और सुनेंगे तो बापदादा भी चारों ओर के सर्व बच्चों को, जो यही लगन लगाकर बैठे हैं कि आज मधुबन में क्या होगा! शरीर से विदेश वा देश में हैं लेकिन आकार रूप द्वारा मधुबन निवासी हैं। बापदादा उन सभी आकारी याद स्वरूप आत्माओं को विशेष याद-प्यार दे रहे हैं। बापदादा डबल सभा देखते हैं, सिंगल नहीं। एक साकारी सभा, एक आकारी सभा। सबकी याद पहुँच रही है। अच्छा– सभी के पत्रों का एक ही उत्तर है, वे बाप को याद करते, बाप पदमगुणा उन बच्चों को याद करते हैं। जैसे वे दिन गिन रहे हैं वैसे बाप हर बच्चे के गुणों की माला सदा सिमरण करते हैं। सभी बच्चों का एक ही मिलन का संकल्प है और बापदादा भी ऐसे मिलन मनाने वाले, संकल्प रखने वाली आत्माओं को विशेष अमृतवेले के मिलन में मिलन मनाए रेसपान्ड देते हैं और सर्व को सेवा के प्रति विशेष संकल्प देते रहते हैं। अच्छा। ऐसे सदा दयाभाव और कृपा दृष्टि रखने वाले, सदा देने वाले, लेने की कामना नहीं रखने वाले, इच्छा मात्रम् अविद्या– ऐसी स्थिति में रहने वाले, ऐसे राज्यवंश संस्कार वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ:- सभी बापदादा की विशेष सहयोगी आत्मायें हो। सहयोगी वही बन सकता है जो स्नेही है। जहाँ स्नेह होगा वहाँ सहयोग देने के सिवाए रह नहीं सकेंगे। तो सेवाधारी अर्थात् स्नेही और सहयोगी। साथ रहने वाले, साथ देने वाले और फिर है लास्ट में साथ चलने वाले। तो तीनों में एवररेडी। साथ रहना और देना अभी है, चलना पीछे है। जब दोनों ही बातें ठीक हो जायेंगी तो तीसरे की डेट भी आ जायेगी। आप सब निमित्त आत्मायें हो ना। जितना आप लोग साथ देंगे और साथ रहेंगे उतना आपको देखकर औरों को भी उंमग उत्साह स्वत: बढ़ेगा। एक आप अनेकों के निमित्त हो। मैं नहीं लेकिन बाप ने निमित्त बनाया है। मैं-पन तो समाप्त हो गया ना। मैं के बजाए मेरा बाबा, मैंने किया, मैंने कहा, यह नहीं, बाबा ने कराया, बाबा ने किया, फिर देखो सफलता सहज हो जायेगी। आपके मुख से बाबा-बाबा जितना निकलेगा उतना अनेकों को बाबा का बना सकेंगे। सबके मुख से यही निकले कि इनकी तात और बात में बाबा ही बाबा है तब औरों को भी तात लग जायेगी। जो बात तात अर्थात् लगन में होगी वही तात वही बात होगी। बापदादा छोटी-छोटी कुमारियों की हिम्मत और त्याग देखकर हार्षित होते हैं। बड़ों ने तो चखकर फिर त्याग किया है, वह कोई बड़ी बात नहीं। चखकर देखा और फिर छोड़ा। लेकिन इन्होंने तो पहले ही समझ का काम कर लिया है। जितनी छोटी उतनी बड़ी समझदार।

पार्टियों से मुलाकात

गुजरात:- सदा अपने को महावीर अर्थात् महान् आत्मा समझकर चलते हो? किसके बने हैं और क्या बने हैं सिर्फ यह भी सोचो तो कभी भी व्यक्त भाव में नहीं आ सकते। व्यक्त भाव से ऊपर रहो अर्थात् फरिश्ते बन सदा ऊपर उड़ते रहो। फरिश्ते नीचे नहीं आते, धरती पर पांव नहीं रखते। यह व्यक्त भाव भी देह की धरनी है। तो जब फरिश्ते बन गये फिर देह की धरनी में कैसे आ सकते, फरिश्ता अर्थात् उड़ने वाले। तो सभी उड़ता पंछी हो, पिंजड़े वाले तो नहीं हो ना? आधाकल्प तो पिंजरे के थे, अब उड़ते पंछी हो गये। स्वतन्त्र हो गये। नीचे की आकर्षण अभी खींच नहीं सकती। नीचे होंगे तो शिकारी शिकार कर देंगे, ऊपर उड़ते रहेंगे तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तो सभी उड़ता पंछी हो ना? पिंजरा खत्म हो गया? चाहे कितना भी सुन्दर पिंजरा हो लेकिन है तो बंधन ना। यह अलौकिक सम्बन्ध भी सोने का पिंजरा है, इसमें भी नहीं फंसना। स्वतन्त्र तो स्वतन्त्र। सदा बन्धनमुक्त रहने वाले ही जीवनमुक्त स्थिति का अनुभव कर सकेंगे। अच्छा।

दिल्ली:- अभी दिल्ली में बिजनेसमैन नहीं निकले हैं। बिजनेसमैन एव लाखों को आगे बढ़ा सकता हैं क्योंकि एक बिजनेसमैन अनेकों के सम्पर्क में आते हैं। जितनों के सम्पर्क में आते हैं उनसे आधे भी सन्देश सुनने वाले निकले तो भी कितने हो जायेंगे। यह भी बिजनेस है। बिजनेसमैन को कितने शेयर्स मिलेंगे। सेवा का चांस बिजनेसमैन को अच्छा है। अभी बिजनेसमैन का ग्रुप तैयार करके आना।

सेवाधारियों से:- जितना बड़ा महत्व यज्ञ का है, उतना ही यज्ञ-सेवाधारियों का भी महत्व है। इसी सेवा का यादगार अब तक अनेक धर्मस्थानों पर कायम है। जो भी पीछे वाले धर्म स्थान बनते हैं, उसी स्थानों की सेवा का भी महत्व समझते हैं। तो चैतन्य महायज्ञ के सेवाधारियों का कितना महत्व है। यह सेवा नहीं कर रहे हो लेकिन पदमगुणा मेवा खा रहे हो। सम्पत्तिवान जो होते हैं ना उसके लिए कहते हैं– यह सदा ही मेवा खाते रहते हैं। गरीब के लिए कहते यह दाल-रोटी खाते और साहूकार के लिए कहते यह तो मेवा खाते। सेवाधारी अर्थात् मेवा खाने वाले। तो कितने श्रेष्ठ हो गये। हर कदम में डबल कमाई। मंसा भी और कर्मणा भी। मंसा अर्थात् याद में रहकर सेवा करते हो तो डबल कमाई हो गई ना। तो कौन कितनी कमाई करता है, वह हरेक स्वयं ही जान सकता है। सेवा का भण्डार भरपूर है। महायज्ञ अर्थात् सेवा का भण्डार। सेवा का भण्डार भरपूर है जो जितनी करे। हद भी नहीं है और खुटने वाली भी नहीं है। यह भी हद नहीं है कि यह काम पूरा हो गया अब क्या करूं, भण्डार भरपूर। बेहद का भण्डार है इसलिए जितनी करो उतनी कर सकते हो। माला-माल बनने की लाटरी है। लाटरी तो मिली है, अभी लाटरी में कौन-सी लाटरी ली है, पदमों वाली, लाखों वाली, हजार वाली या सौ वाली, वह आपके ऊपर है। लाटरी महान है, पदमों की भी ले सकते हो। बापदादा भी सेवाधारी बनकर आते हैं। वर्ल्ड आलमाइटी अथॉरिटी का पहला स्वरूप तो वर्ल्ड सर्वेन्ट है ना। तो जैसे बाप वैसे बच्चों का गायन है। निर्विघ्न सेवाधारी हो ना! सेवा के बीच में कोई विघ्न तो नहीं आता। वायुमण्डल का, संग का, आलस्य का, भिन्न-भिन्न विघ्न हैं तो किसी भी प्रकार का विघ्न आया तो सेवा खण्डित हो गई ना। अखण्ड सेवा। किसी भी प्रकार के विघ्न में कभी भी नहीं आना। निर्विघ्न सेवा, उसका ही महत्व है। जरा भी संकल्प मात्र भी विघ्न न हो। ऐसे अखण्ड सेवाधारी कभी किसी चक्र में नहीं आते। कभी कोई व्यर्थ चक्र में नहीं आना तब सेवा सफल हो जायेगी। नहीं तो सेवा की सफलता नहीं होगी। अच्छा।
वरदान:
संशय के संकल्पों को समाप्त कर मायाजीत बनने वाले विजयी रत्न भव!   
कभी भी पहले से यह संशय का संकल्प उत्पन्न न हो कि ना मालूम हम फेल हो जायें, संशयबुद्धि होने से ही हार होती है इसलिए सदा यही संकल्प हो कि हम विजय प्राप्त करके ही दिखायेंगे। विजय तो हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, ऐसे अधिकारी बनकर कर्म करने से विजय अर्थात् सफलता का अधिकार अवश्य प्राप्त होता है, इसी से विजयी रत्न बन जायेंगे इसलिए मास्टर नॉलेजफुल के मुख से नामालूम शब्द कभी नहीं निकलना चाहिए।
स्लोगन:
रहम की भावना सहज ही निमित्त भाव इमर्ज कर देती है।