Saturday, July 2, 2016

मुरली 3 जुलाई 2016

03-07-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज:14-10-81 मधुबन

“सर्व खजानों की चाबी एक शब्द– `बाबा'”
आज भाग्यविधाता बाप अपने भाग्यशाली बच्चों को देख रहे हैं। भाग्यशाली तो सभी बने हैं लेकिन भाग्यशाली शब्द के आगे कहाँ सौभाग्यशाली, कहाँ पद्मापदम भाग्यशाली। भाग्यशाली शब्द दोनों के लिए कहा जाता है। कहाँ सौ और कहाँ पदम, अन्तर हो गया ना! भाग्य विधाता एक ही है। विधाता की विधि भी एक ही है। समय और वेला भी एक ही है फिर भी नम्बरवार हो गये। विधाता की विधि कितनी श्रेष्ठ और सहज है। वैसे लौकिक रीति से आजकल किसी के ऊपर ग्रहचारी के कारण तकदीर बदल जाती है तो ग्रहचारी को मिटाकर श्रेष्ठ तकदीर बनाने के लिए कितने प्रकार की विधियां करते हैं। कितना समय, कितनी शक्ति और सम्पत्ति खर्च करते हैं। फिर भी अल्पकाल की तकदीर बनती है। एक जन्म की भी गैरन्टी नहीं क्योंकि वे लोग विधाता द्वारा तकदीर नहीं बदलते। अल्पज्ञ, अल्प-सिद्धि के प्राप्त हुए व्यक्ति द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति करते हैं। वह हैं अल्पज्ञ व्यक्ति और यहाँ है विधाता। विधाता द्वारा अविनाशी तकदीर की लकीर खिंचवा सकते हो क्योंकि भाग्यविधाता दोनों बाप इस समय बच्चों के लिए हाजर-नाजर हैं। जितना भाग्य विधाता से भाग्य लेने चाहो उतना अब ले सकते हो। इस समय ही भाग्य-विधाता भाग्य बांटने के लिए आये हैं। इस समय को ड्रामा अनुसार वरदान है। भाग्य के भण्डारे भरपूर खुले हुए हैं, तन का भण्डारा, मन का, धन का, राज्य का, प्रकृति दासी बनाने का, भक्त बनाने का, सब भाग्य के भण्डारे खुले हुए हैं। किसी को भी विधाता द्वारा स्पेशल प्राप्ति का चान्स नहीं मिलता है। सबको एक जैसा चांस है। कोई भी बातों का कारण भी बन्धन के रूप में नहीं है। पीछे आने का कारण, प्रवृत्ति में भी रहने के कारण, तन के रोग का कारण, आयु का कारण, स्थूल डिग्री या पढ़ाई का कारण किसी भी प्रकार के कारण का ताला भण्डारे में नहीं लगा हुआ है। दिन रात भाग्य विधाता के भण्डारे भरपूर और खुले हुए हैं, कोई चौकीदार नहीं है। फिर भी देखो लेने में नम्बर बन जाते हैं। भाग्य विधाता नम्बर से नहीं देते हैं। यहाँ भाग्य लेने के लिए क्यू तो नहीं है ना? अमृतबेले देखो– देश विदेश के सभी बच्चे एक ही समय पर भाग्य विधाता से मिलन मनाने आते, तो मिलना हो ही जाता है। मिलन मनाना ही मिलना हो जाता है। मांगते नहीं हैं, लेकिन बड़े ते बड़े बाप से मिलना अर्थात् भाग्य की प्राप्ति होना। एक है बाप बच्चों का मिलना, दूसरा है कोई चीज मिलना। तो मिलन भी हो जाता है और भाग्य मिलना भी हो जाता है क्योंकि बड़े आदमी कभी भी किसी को खाली नहीं भेज सकते हैं। तो बाप तो है ही विधाता, वरदाता, भरपूर भण्डारी। खाली कैसे भेज सकते। फिर भी भाग्यशाली, सौभाग्यशाली, पदम भाग्यशाली, पद्मापद्म भाग्यशाली, ऐसे क्यों बनते हैं? देने वाला भी है, भाग्य का खजाना भी भरपूर है, समय का भी वरदान है। इन सब बातों का ज्ञान अर्थात् समझ भी हैं। अनजान भी नहीं हैं फिर भी अन्तर क्यों? (ड्रामा अनुसार) ड्रामा को ही अभी वरदान है, इसलिए ड्रामा नहीं कह सकते। विधि भी देखो कितनी सरल है। कोई मेहनत भी नहीं बतलाते, धक्के नहीं खिलाते, खर्चा नहीं कराते। विधि भी एक शब्द की है। कौन सा एक शब्द? एक शब्द जानते हो? एक ही शब्द सर्व खजानों की वा श्रेष्ठ भाग्य की चाबी है। वही चाबी है, वही विधि है। वह क्या है? यह “बाबा” शब्द ही चाबी और विधि है। तो चाबी तो सबके पास है ना? फिर फर्क क्यों? चाबी अटक क्यों जाती है? राइट के बजाए लेफ्ट तरफ घुमा देते हो। स्वचिन्तन के बजाए, परचिन्तन, यह उल्टे तरफ की चाबी है। स्वदर्शन के बदले परदर्शन, बदलने के बजाए बदला लेने की भावना, स्व-परिवर्तन के बजाए पर-परिवर्तन की इच्छा रखन्। काम मेरा नाम बाप का, इसके बजाए नाम मेरा काम बाप का, इसी प्रकार की उल्टी चाबी घुमा देते हैं, तो खजाने होते हुए भी भाग्यहीन खजाने पा नहीं सकते। भाग्य विधाता के बच्चे और बन क्या जाते हैं? थोड़ी सी अंचली लेने वाले बन जाते। दूसरा क्या करते हैं? आजकल की दुनिया में जो अमूल्य खजाने लाकर्स वा तिजोरियों में रखते हैं, उन्हों के खोलने की विधि डबल चाबी लगाते हैं वा दो बारी चक्कर लगाना होता है। अगर वह विधि नहीं करेंगे तो खजाने मिल नहीं सकते। लाकर्स में देखा होगा– एक आप चाबी लगायेंगे दूसरा बैंक वाला लगायेगा। तो डबल चाबी होगी ना। अगर सिर्फ आप अपनी चाबी लगाकर खोलने चाहो तो खुल नहीं सकता। तो यहाँ भी आप और बाप दोनों के याद की चाबी चाहिए। कई बच्चे अपने नशे में आकर कहते हैं मैं सब कुछ जान गया हूँ, मैं जो चाहूँ वह कर सकता हूँ, करा सकता हूँ। बाप ने तो हमको मालिक बना दिया है। ऐसे उल्टे मैं-पन के नशे में बाप से सम्बन्ध भूल स्वयं को ही सब कुछ समझने लगते हैं। और एक ही चाबी से खजाने खोलने चाहते हैं अर्थात् खजानों का अनुभव करने चाहते हैं। लेकिन बिना बाप के सहयोग वा साथ के खजाने मिल नहीं सकते तो डबल चाबी चाहिए। कई बच्चे बाप-दादा अर्थात् दोनों बाप के बजाए एक ही बाप द्वारा खजाने के मालिक बनने की विधि को अपनाते हैं, इससे भी प्राप्ति से वंचित हो जाते हैं। हमारा निराकार से डायरेक्ट कनेक्शन है, साकार ने भी निराकार से पाया इसलिए हम भी निराकार द्वारा ही सब पा लेंगे, साकार की क्या आवश्यकता है। लेकिन ऐसी चाबी खण्डित चाबी बन जाती है, इसलिए सफलता नहीं मिल पाती है। हंसी की बात तो यह है कि नाम अपना ब्रह्माकुमार, कुमारी कहलायेंगे और कनेक्शन शिव बाप से रखेंगे। तो अपने को शिव कुमार, कुमारी कहलाओ ना। ब्रह्माकुमार और कुमारी क्यों कहते? सरनेम ही है शिव वंशी ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी तो दोनों ही बाप का सम्बन्ध हुआ ना। दूसरी बात– शिव बाप ने भी ब्रह्मा द्वारा ही स्वयं को प्रत्यक्ष किया। ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण एडाप्ट किये। अकेला नहीं किया। ब्रह्मा माँ ने बाप का परिचय दिलाया। ब्रह्मा माँ ने पालना कर बाप से वर्से के योग्य बनाया। तीसरी बात– राज्य-भाग्य की प्रालब्ध में किसके साथ आयेंगे? निराकार तो निराकारी दुनिया के वासी हो जायेंगे। साकार ब्रह्मा बाप के साथ राज्य-भाग्य की प्रालब्ध भोगेंगे। साकार में हीरो पार्ट बजाने का सम्बन्ध साकार ब्रह्मा बाप से है वा निराकार से? तो साकार के बिना सर्व भाग्य के भण्डारे के मालिक कैसे हो सकते हैं? तो खण्डित चाबी नहीं लगाना। भाग्य विधाता ने भाग्य बांटा ही ब्रह्मा द्वारा है। सिवाए ब्रह्माकुमार, कुमारी के भाग्य बन नहीं सकता। आप लोगों के यादगार में भी यही गायन है कि ब्रह्मा ने जब भाग्य बांटा तो सोये हुए थे! सोये हुए थे वा खोये हुए थे? इसलिए उल्टी चाबी नहीं लगाओ, डबल चाबी लगाओ। डबल बाप भी और डबल आप और बाप भी, इसी सहज विधि से सदा भाग्य के खजाने से पद्मापद्म भाग्यशाली बन सकते हो। कारण को निवारण करो तो सदा सम्पन्न बन जायेंगे। समझा? अच्छा। ऐसे भाग्य विधाता के सदा श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को, सहज विधि द्वारा विधाता को ही अपना बनाने वाले, सदा सर्व भाग्य के खजानों से खेलने वाले, “बाबा-बाबा” कहना नहीं लेकिन “बाबा” को अपना बनाना और खजानों को पाना, ऐसे सदा अधिकारी बच्चों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से व्यक्तिगत मुलाकात:- सुना तो बहुत है, सुनने के बाद स्वरूप बने? सुनना अर्थात् स्वरूप बनना। इसको कहा जाता है मनरस। सिर्फ सुनना तो कनरस हो गया। लेकिन सुनना और बनना, यह है मनरस। मन्त्र ही है मनमनाभव। मन को बाप में लगाना। जब मन लग जाता है तो जहाँ मन होगा, वहाँ स्वरूप भी सहज बन जायेंगे। जैसे देखो किसी भी स्थान पर बैठे सुख व खुशी की बातों में मन चला जाता है तो स्वरूप ही वह बन जाता है। तो मनरस अर्थात् जहाँ मन होगा वैसा बन जायेंगे। अब कनरस का समय समाप्त हुआ और मनरस का समय चल रहा है। तो अभी क्या बन गये? भाग्य के खजानों के मालिक, सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान बन गये ना। जैसा बाप वैसे हम। ऐसे समझते हो ना? चाबी भी सुना दी और विधि भी सुना दी। अभी लगाना आपका काम है। चाबी लगाने तो आती है ना? अगर चाबी को उल्टा चक्कर लग गया तो बहुत मुश्किल हो जायेगा। चाबी भी चली जायेगी और खजाना भी चला जायेगा। तो आप सब सुल्टी चाबी लगाने वाले पद्मापद्म भाग्यशाली हो ना? पद्मापद्म भाग्यशाली की निशानी क्या होगी? उनके हर कदम में भी पदम होंगे और वे हर कदम में भी पदमों की कमाई जमा करेंगे। एक कदम भी पदमों की कमाई से वंचित नहीं होगा इसलिए डबल पदम, एक पदम कमल पुष्प को भी कहते हैं, अगर कमल पुष्प के समान नहीं तो भी अपने भाग्य को बना नहीं सकते। कीचड़ में फंसना अर्थात् भाग्य को गंवाना। तो पद्मापद्म भाग्यशाली अर्थात् पदम समान रहना और पदमों की कमाई करना तो देखो यह दोनों ही निशानियां हैं! सदा न्यारे और बाप के प्यारे बने हैं! न्यारापन ही बाप को प्यारा है। जितना जो न्यारा रहता है उतना स्वत: ही बाप का प्यारा हो जाता है क्योंकि बाप भी सदा न्यारा है, तो वह बाप समान हो गया ना। तो हर कदम में चेक करो कि हर कदम अर्थात् हर सेकेण्ड, हर संकल्प में, हर बोल में, हर कर्म में, पदमों की कमाई होती है! बोल भी समर्थ, कर्म भी समर्थ, संकल्प भी समर्थ, समर्थ में कमाई होगी, व्यर्थ में कमाई जायेगी। तो हरेक अपना चार्ट स्वत: ही चेक करो। करने के पहले चेक करना, यह है यथार्थ चेकिंग। लेकिन करने के बाद चेक करो तो जो कर चुके वह तो हो ही गया ना! इसलिए पहले चेक करना फिर करना। समझदार वा नॉलेजफुल की निशानी ही है पहले सोचना फिर करना। करने के बाद अगर सोचा तो आधा गंवाया, आधा पाया। करने के पहले सोचा तो सदा पाया। ज्ञानी तू आत्मा अर्थात् समझदार सिर्फ रात को वा सुबह को चेकिंग नहीं करते, लेकिन हर समय पहले चेंकिग करेंगे फिर करेंगे। जैसे बड़े आदमी पहले भोजन को चेक कराते हैं फिर खाते हैं। तो यह संकल्प भी बुद्धि का भोजन है, इसलिए आप बच्चों को संकल्प की भी चैकिग कर फिर स्वीकार करना है अर्थात् कर्म में लाना है। संकल्प ही चेक हो गया तो वाणी और कर्म स्वत: ही चेक हो जायेंगे। बीज तो संकल्प है ना। आप जैसे बड़े और कोई कल्प में हुए ही नहीं हैं। टीचर्स के साथ:- सेवाधारी की विशेषता ही है त्याग और तपस्या। जहाँ त्याग और तपस्या है वहाँ सेवाधारी की सदा सफलता है। सेवाधारी अर्थात् जिसका एक बाप के सिवाए और कोई नहीं। एक बाप ही सारा संसार है। जब संसार ही बाप हो गया तो और क्या चाहिए। सिवाए बाप के और दिखाई न दे। चलते-फिरते, खाते-पीते एक बाप दूसरा न कोई। यही स्मृति में रखना अर्थात् सफलता मूर्त बनना। सफलता कम होती तो चेक करो– जरूर बापदादा के साथ कोई दूसरा बीच में आ गया है। सफलतामूर्त की निशानी एक बाप में सारा संसार। कुमारियों से:- कुमारियों को देखकर बापदादा बहुत हर्षित होते हैं। क्यों? क्योंकि एक-एक कुमारी अनेकों को जगाने के निमित्त बनने वाली है। तो कुमारियों के भविष्य को देख करके हर्षित होते हैं। एक-एक कुमारी विश्व कल्याणकारी बनेगी। परिवार कल्याण वाली नहीं, विश्व कल्याण करने वाली। अगर कुमारी गृहस्थी हो गई तो परिवार कल्याणकारी हो गई और ब्रह्माकुमारी बन गई तो विश्व कल्याणकारी हो गई। तो क्या बनने वाली हो? वैसे भी देखो कुमारियों का भक्तिकाल के अन्त में भी पूजन होता है। तो लास्ट तक भी इतनी श्रेष्ठ हो। कुमारी जीवन का बहुत महत्व है। कुमारियों को ब्राह्मण जीवन में लिफ्ट भी है। कुमारियां कितना जल्दी सेवाकेन्द्र की इन्चार्ज बन जाती हैं। कुमारों को देरी से चांस मिलता है। कुमारी अगर रेस में आगे जाए तो बहुत अपने को आगे बढ़ा सकती है। एक कुमारी अनेक सेवाकेन्द्रों को सम्भाल सकती है। ड्रामा अनुसार यह लिफ्ट गिफ्ट की रीति से मिली हुई है। मेहनत नहीं की है। कुमारियों की विशेषता क्या है? कुमारी जीवन अर्थात् सम्पूर्ण पावन। अगर कुमारी जीवन में यह विशेषता नहीं तो उसका कोई महत्व नहीं। ब्रह्माकुमारी अर्थात् मंसा में भी अपवित्रता का संकल्प न हो। तभी पूज्य है, नहीं तो खण्डित हो जाती है और खण्डित की पूजा नहीं होती। तो इस विशेषता को जानती हो? इतनी सब कुमारियां सेवाधारी बन जाएं तो कितने सेन्टर खुल जाएं! बापदादा किसी को लौकिक सेवा छोड़ने के लिए भी नहीं कहते। लेकिन बैलेंस हो। जितना-जितना इस सेवा में बिजी होती जायेंगी तो वह आपेही छूट जायेगी। किसी को कहो नौकरी छोड़ो तो सोच में पड़ जाते। जैसे अज्ञानी को कहो बीड़ी छोड़ो, सिग्रेट छोड़ो, तो छोड़ने से नहीं छूटती, अनुभव से छोड़ देते हैं। ऐसे ही आप भी जब इस सेवा में बिजी हो जायेंगे तो वह छूट जायेगी। अभी तक गुजरात को दहेज में सेन्टर नहीं मिले हैं, बाम्बे को मिले हैं। गुजरात जो चाहे वह कर सकता है। कमी नहीं है सिर्फ संकल्प और सिस्टम नहीं शुरू हुई है। सभी कुमारियां बापदादा के कुल की दीपक हो ना? अपने भाग्य को देखकर सदा हर्षित रहो तो इस जीवन में बाप की बन गई। यही जीवन गिराने वाली भी है और चढ़ाने वाली भी है। तो सभी चढ़ती कला के रास्ते पर पहुंच गई हो। अच्छा।
वरदान:
कदम-कदम पर सावधानी रखते हुए पदमों की कमाई जमा करने वाले पदमपति भव!   
बाप बच्चों को बहुत ऊंची स्टेज पर रहने की सावधानी दे रहे हैं इसलिए अभी जरा भी गफलत करने का समय नहीं है, अब तो कदम-कदम पर सावधानी रखते हुए, कदम में पदमों की कमाई करते पदमपति बनो। जैसे नाम है पदमापदम भाग्यशाली, ऐसे कर्म भी हों। एक कदम भी पदम की कमाई के बिगर न जाए। तो बहुत सोच-समझकर श्रीमत प्रमाण हर कदम उठाओ। श्रीमत में मनमत मिक्स नहीं करो।
स्लोगन:
मन को आर्डर प्रमाण चलाओ तो मन्मनाभव की स्थिति स्वत: रहेगी।