Monday, August 1, 2016

मुरली 1 अगस्त 2016

01-08-16 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “बापदादा” मधुबन 

“मीठे बच्चे– सब बातों में सहनशील बनो, निंदा-स्तुति, जय-पराजय सबमें समान रहो, सुनी सुनाई बातों में विश्वास नहीं करो”   
प्रश्न:
आत्मा सदा चढ़ती कला में आगे बढ़ती रहे उसकी सहज युक्ति सुनाओ?
उत्तर:
एक बाप से ही सुनो, दूसरे से नहीं। फालतू परचिन्तन में, वाह्यात बातों में अपना समय बरबाद न करो, तो आत्मा सदा चढ़ती कला में रहेगी। उल्टी-सुल्टी बातें सुनने से, उन पर विश्वास करने से अच्छे बच्चे भी गिर पड़ते हैं, इसलिए बहुत सम्भाल करनी है।
ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे बच्चों को अब स्मृति आई है कि बरोबर आधाकल्प हमने बाप को याद किया है, जब से रावण राज्य शुरू हुआ है। ऐसे भी नहीं कोई पूरे आधाकल्प याद किया है, नहीं। जब-जब दु:ख जास्ती आया है, तब-तब याद किया है। अभी तुमको पता पड़ा है कि भक्ति मार्ग से हम उतरते आये हैं। ड्रामा का राज बुद्धि में है। मुख से कुछ कहने का भी नहीं है, हम उनके हो गये इसलिए जास्ती ज्ञान की दरकार नहीं। बाप के बने तो बाप की जायदाद के मालिक हो गये। कुछ कर्मेन्द्रियों से करने का नहीं रहता। भक्ति मार्ग में भगवान से मिलने के लिए कितने यज्ञ-तप दान-पुण्य करते हैं। जहाँ भी जाओ सब जगह तीर्थ, मन्दिर अथाह हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो सारे भारत के तीर्थ और अथाह मन्दिर आदि घूम सके। अगर घूमे भी तो कुछ मिलता नहीं। वहाँ घण्टा घडि़याल आदि कितना घमसान है। यहाँ तो घमसान की बात नहीं। न गीत गाने, न तालियां बजाने की बात है। मनुष्य तो क्या-क्या नहीं करते हैं, अथाह कर्मकाण्ड हैं। यहाँ तो तुम बच्चों को सिर्फ याद करना है और कुछ भी नहीं। घर में रहते सब कुछ करते सिर्फ बाप को याद करना है। तुम जानते हो अभी हम देवता बनते हैं। यहाँ ही दैवीगुण धारण करना है। खानपान भी शुद्ध होना चाहिए। 36 प्रकार के भोजन तो वहाँ मिलेंगे। यहाँ साधारण रहना है। न बहुत ऊंच, न बहुत नींच। सब बातों में सहनशीलता चाहिए। निंदा-स्तुति, जय-पराजय, सर्दा-गर्मा, यह सब कुछ सहन करना पड़ता है। समय ही ऐसा है। पानी नहीं मिलेगा, यह नहीं मिलेगा, सूर्य भी अपनी तपत दिखायेगा। हर चीज तमोप्रधान बनती है। यह सृष्टि ही तमोप्रधान है। तत्व भी तमोप्रधान हैं। तो यह दु:ख देते हैं। निंदा-स्तुति में भी नहीं जाना है। बहुत हैं जो झट बिगड़ पड़ते हैं। किसने उल्टा-सुल्टा कुछ किसको सुनाया क्योंकि आजकल बातों की बनावट तो बहुत है ना। कोई ने कुछ कहा– तुम्हारे लिए बाबा यह कहते हैं कि इनको देह-अभिमान है, बाहर का शो बहुत है, यह किसी ने सुनाया, बस बुखार चढ़ जायेगा। नींद भी फिट जायेगी। आधाकल्प के मनुष्य ऐसे हैं, कोई को भी झट बुखार चढ़ा दें, झट पीले हो जायेंगे। तो बाप कहते हैं कोई भी ऐसी वाह्यात बातें नहीं सुनो। बाप कभी भी किसकी निंदा नहीं करते हैं। बाप तो समझाने लिए ही कहते हैं। उल्टी-सुल्टी बातें एक-दो को सुनाने से अच्छे-अच्छे बच्चे भी बिगड़ पड़ते हैं। तो ट्रेटर बन वाह्यात बातें जाकर एक-दो को सुनायेंगे। भक्ति मार्ग में भी कैसी-कैसी कहानियां बनाई हैं। अभी तुमको ज्ञान मिला है तो तुम कभी भी हे राम वा हाय भगवान भी नहीं कह सकते, यह अक्षर भी भक्ति मार्ग के हैं। तुम्हारे मुख से ऐसे अक्षर नहीं निकलने चाहिए।

बाप सिर्फ कहते हैं मीठे लाड़ले बच्चों आत्म-अभिमानी बनो। कितना प्यार से समझाते हैं। किसकी भी बात नहीं सुनो, फालतू पराचिंतन नहीं करो। एक बात पक्की कर लो– हम आत्मा हैं। आत्मा अविनाशी है, शरीर विनाशी है। आत्मा ही संस्कार धारण करती है। अब तुम बच्चों को आत्म-अभिमानी बनना है। द्वापर से तुम रावण राज्य में देह-अभिमानी बनते हो इसलिए अब देही-अभिमानी बनने में मेहनत लगती है। घड़ी-घड़ी बुद्धि में यह आना चाहिए कि हमको बेहद का बाप मिला है। कल्प-कल्प बाप वर्सा देते हैं। अब उनकी मत पर चलना है। उनके लिए ही गायन है– तुम मात-पिता.... वह सब सम्बन्धों का सुख देने वाला है, उनमें सब मिठास है। बाकी और मित्र-सम्बन्धी आदि दु:ख देने वाले ही हैं। एक ही बाप है जो सबको सुख देने वाला है। रास्ता भी बिल्कुल सहज बताते हैं कि अपने को आत्मा समझ मुझ बाप को याद करो। बाप समझाते हैं यह कोई नई बात नहीं है। तुम जानते हो हर 5 हजार वर्ष बाद हम ऐसे बाप के पास आते हैं, यह कोई साधूसन्त नहीं है। तुम कोई साधू सन्त आदि के पास नहीं रहते, बाकी हाँ बाप कहते हैं- प्रवृत्ति मार्ग के सम्बन्ध से तोड़ निभाना है। नहीं तो और ही खिट-खिट हो जाती है, युक्ति से चलो। प्यार से हर एक को समझाना है कि देखो अभी विनाश का समय नजदीक है, यह आसुरी दुनिया खत्म होनी है। अब देवता बनना है, दैवीगुण यहाँ धारण करना है। प्यार से समझाना चाहिए। देवतायें भी प्याज लहसुन आदि तो खाते नहीं। हम भी मनुष्य से देवता बनते हैं तो हम यह कैसे खा सकते हैं। तुमको भी राय देते हैं– यह छोड़ दो। ऐसी चीजें हम खाते नहीं। अभी तुमको बेहद का बाप दैवीगुण सिखलाने वाला मिला है तो सर्वगुण सम्पन्न..... यहाँ ही बनना है। यहाँ बनेंगे तब फिर भविष्य नई दुनिया आयेगी। यह ऐसे ही होता है जैसे रात के बाद फिर दिन होता है। अब रात की अन्त में ही दैवीगुण धारण करने हैं तो फिर सुबह हो जायेगी। अपनी परीक्षा हरेक को आपेही लेनी है। ऐसे नहीं कि बाप तो सब कुछ जानते हैं। तुम अपने को देखो ना। स्टूडेन्ट ऐसे कभी नहीं कहेंगे कि टीचर तो सब कुछ जानते हैं। इम्तहान के दिन नजदीक आते हैं तो बच्चे खुद भी समझते हैं हम कितना पास होंगे, किस सबजेक्ट में हम ढीले हैं। मार्क्स कम लेंगे फिर सब मिलाकर पास हो जायेंगे। यह समझते हैं तो इसमें भी अपनी जांच रखनी है। हमारे में क्या कमी है? मैं बहुत मीठा बना हूँ? सबको प्यार से समझाना है– हम आत्माओं का बाप परमपिता परमात्मा है। मनुष्य की बात नहीं। हम निराकार को भगवान कहते हैं, भगवान रचता एक ही है, बाकी सब हैं रचना। रचना से किसको वर्सा नहीं मिल सकता, कायदा नहीं है। अब सर्व रचना का सद्गति दाता एक ही रचता बाप है, उसमें साधू-सन्त सब आ गये। हैं तो सब आत्मायें ना। हाँ मनुष्य अच्छे-बुरे तो होते ही हैं, पोजीशन ऊंचा-नीचा होता है। सन्यासियों में भी नम्बरवार हैं। कोई तो देखो भीख मांगते रहते, कोई को सब पांव पड़ते हैं। तुम बच्चों को भी ऊंच बनना है, बहुत मीठा बनो। कभी भी क्रोध से बात नहीं करनी चाहिए, जितना हो सके प्यार से काम लो। कहते हैं बच्चे बहुत तंग करते हैं सो तो आजकल के बच्चे हैं ही ऐसे। प्यार से उनको समझाओ। दिखाते हैं कृष्ण चंचलता करता था तो उनको रस्सी से बांधते थे। जितना हो सके प्यार से समझाना है या तो हल्की सजा। बिचारे अबोध (अन्जान) हैं। समय भी ऐसा है। बाहर का संगदोष बहुत खराब है। अभी बेहद का बाप कहते हैं तुम्हें मूर्ति आदि रखने की कोई दरकार नहीं है। कुछ भी मेहनत करने की दरकार नहीं है। शिव का चित्र भी क्यों रखें! वह तो तुम्हारा बाप है ना। घर में बच्चे बाप का चित्र क्यों रखेंगे? बाप तो हाजरा-हजूर है ना। बाप कहते हैं-मैं अभी हाजर नाजर हूँ ना। फिर चित्रों की तो दरकार नहीं। मैं बच्चों को बैठ समझाता हूँ। कहते हैं बापदादा को देखें। अब बाप तो है निराकार, उनको देख न सकें। बुद्धि से समझ सकते हैं। बाप कहते हैं-मैं इनमें प्रवेश कर तुमको नॉलेज बैठ देता हूँ। नहीं तो कैसे आऊं। कृष्ण के तन में कैसे आयेगा। सन्यासियों में भी नहीं आ सकता हूँ। मैं आता ही उनमें हूँ जो पहले नम्बर में था। वही अब लास्ट नम्बर में है। तुमको भी अभी पढ़कर फिर पहले नम्बर में जाना है। पढ़ाने वाला तो एक ही है, जिसको ज्ञान का सागर कहा जाता है। तुमको ज्ञान बहुत अच्छा मिलता है। तुम जानते हो– शान्तिधाम हमारा घर है, सुखधाम हमारी राजधानी है। दु:खधाम रावण की बादशाही है। अब बाप कहते हैं मीठे-मीठे बच्चों– अपने घर शान्तिधाम को याद करो, सुखधाम को याद करो। दु:खधाम के बन्धन को भूलते जाओ। ऐसे और कोई कह न सके। न वह जा सकते हैं। ड्रामा के बीच से वापस कोई भी जा न सके। यह जो कहते हैं फलाना ज्योति ज्योत समाया वा पार निर्वाण गया, एक भी जाता नहीं है। सबका बाप अथवा मालिक एक ही परमपिता परमात्मा है, वह सब आशिकों का एक ही माशूक है। वह जिस्मानी आशिक माशूक एक-दो को याद करते हैं, बुद्धि में चित्र आ जाता है। फिर एक-दो को याद करते रहेंगे। खाना खाते रहेंगे, याद करते रहेंगे। वह तो हैं एक जन्म के आशिक माशूक। तुम जन्म-जन्मान्तर के आशिक हो, एक माशूक के। तुमको और कुछ भी नहीं करना है, सिर्फ एक बाप को याद करना है। उन आशिक माशूक के सामने चित्र आ जाता है। बस उनको देखते-देखते काम भी ठहर जाता फिर उनका चेहरा गुम हो जाता है और काम करने लग पड़ते हैं। इसमें तो ऐसे नहीं है। आत्मा भी बिन्दी, परमात्मा भी बिन्दी है। अपने को आत्मा समझ बाप को याद करना है, इसमें ही मेहनत है, कोई भी ऐसी प्रैक्टिस करते नही हैं। आत्मा का ज्ञान मिला अर्थात् आत्मा को रियलाइज किया, बाकी रहा परमात्मा। वह भी तुम जानते हो। बाबा आकर यहाँ (भ्रकुटी में) बैठते हैं। इनकी जगह भी यहाँ है। आत्मा कहाँ से भी चली जाती है, मालूम नहीं पड़ता है। उनका मुख्य स्थान भ्रकुटी है। बाप कहते हैं- मैं भी बिन्दी हूँ, इसमें आकर बैठा हूँ। तुमको पता भी नहीं पड़ता है। बाप तुम बच्चों को बैठ सुनाते हैं, तुमको जो सुनाते हैं वह हम भी सुनते हैं। समझानी तो बिल्कुल राइट है। दैवी धर्म वाले जो होंगे वह झट समझ जायेंगे– यह राजधानी स्थापन हो रही है। पहले स्थापना और फिर विनाश भी होगा और कोई धर्म स्थापक ऐसे नहीं करते हैं। वह सिर्फ अपना धर्म स्थापन करते हैं फिर वृद्धि को पाते, यहाँ तो जो जितना-जितना पुरूषार्थ करते हैं, उतना भविष्य में ऊंच पद पाते हैं। तुम भविष्य 21 जन्मों के लिए प्रालब्ध बनाते हो तो कितना पुरूषार्थ करना चाहिए और है बहुत सहज, योग भी सहज जिससे तुम्हारे विकर्म विनाश होते हैं। बाप कहते हैं- मैं गैरन्टी करता हूँ, कल्प-कल्प मैं ही आकर तुम बच्चों को पावन बनाता हूँ। वहाँ पतित एक भी होता नहीं। ज्ञान भी कितना सहज है, 84 जन्मों का चक्र कैसे लगाते हैं, वह भी बुद्धि में नॉलेज है। हमने 84 का चक्र लगाया है, यह निश्चय रखना है। निश्चय में ही विजय है। ऐसे नहीं कि पता नहीं हम 84 जन्म लेते हैं वा कुछ कम। जबकि तुम ब्राह्मण हो तो तुमको निश्चय होना चाहिए बरोबर हमने 84 का चक्र पूरा भोगा है। यह तो बहुत सहज समझानी है। बच्चों को समझाया है यह चित्र सब दिव्य दृष्टि से बाप ने बनवाये हैं। करेक्ट भी कराये हैं। शुरू में जब बनारस में बाबा एकान्त में रहते थे तो ऐसे चक्र दीवारों पर बैठ निकालते थे। समझते कुछ नहीं थे कि यह क्या है। खुशी होती थी। साक्षात्कार होने से जैसे उड़ जाते थे। यह क्या होता है, समझ में नहीं आता था। तुम जानते हो जो चित्र पहले बने थे वह फिर बदलकर नयेन ये बनाते गये हैं। अभी नये-नये चित्र कल्प पहले मुआिफक बनते जाते हैं। सीढ़ी का चित्र देखो कितना अच्छा है। इस पर समझाना सहज है। देरी से आने वालों को और ही सहज समझानी मिलती है। अभी नये-नये जो आते हैं, 7 दिन में सारा नॉलेज समझ लेते हैं। पुरानों से भी आगे जा रहे हैं। कोई कहते हैं पहले आते थे तो अच्छा था। अरे यह भी फिकर मत करो। आगे आते थे और भागन्ती हो जाते थे तो? देरी से आने वालों को तो सहज तख्त मिलता है। पहले जो थे देखो वे फिर अब हैं भी नहीं। खत्म हो गये। पिछाड़ी में रिजल्ट का मालूम पड़ता है– कौन पास हुआ। नये-नये निकलते हैं और झट सर्विस पर लग पड़ते हैं। पुराने इतना नहीं लगते। नई-नई बच्चियां सर्विस से दिल पर चढ़ी रहती हैं। पुराने कितने तो खत्म हो गये इसलिए बाबा कहते हैं- जिनको सर्वोत्तम ब्राह्मण कुल भूषण कहा जाता है, उनमें भी कोई आश्चर्यवत् सुनन्ती, भागन्ती हो जाते हैं। जो गाया हुआ है वह अब प्रैक्टिकल हो रहा है। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) अपनी जांच आपेही करनी है। देखना है मैं बहुत-बहुत मीठा बना हूँ? हमारे में क्या-क्या कमी है? सब दैवीगुण धारण हुए हैं! अपनी चलन देवताओं जैसी बनानी है। आसुरी खान-पान त्याग देना है।
2) कोई भी वाह्यात बातें न सुननी है और न बोलनी है। सहनशील बनना है।
वरदान:
हर संकल्प और कर्म में सिद्धि अर्थात् सफलता प्राप्त करने वाले सम्पूर्ण मूर्त भव   
संकल्पों की सिद्धि तब प्राप्त होगी जब समर्थ संकल्पों की रचना करेंगे। जो अधिक संकल्पों की रचना करते हैं वह उनकी पालना नहीं कर पाते इसलिए जितनी रचना ज्यादा उतनी शक्तिहीन होती है। तो पहले व्यर्थ रचना बन्द करो तब सफलता प्राप्त होगी और कर्मों में सफलता प्राप्त करने की युक्ति है-कर्म करने से पहले आदि-मध्य और अन्त को जानकर फिर कर्म करो। इससे ही सम्पूर्ण मूर्त बन जायेंगे।
स्लोगन:
समय पर दु:ख और धोखे से बचकर सफल होने वाला ही ज्ञानी (समझदार) है।