Wednesday, January 3, 2018

04/01/18 प्रात:मुरली

04/01/18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

"मीठे बच्चे - बाप उस्ताद ने तुम्हें मनुष्य से देवता बनने का हुनर सिखलाया है, तुम फिर श्रीमत पर औरों को भी देवता बनाने की सेवा करो"
प्रश्न:
अभी तुम बच्चे कौन सा श्रेष्ठ कर्म करते हो जिसका रिवाज भक्ति में भी चला आता है?
उत्तर:
तुम अभी श्रीमत पर अपना तन-मन-धन भारत तो क्या विश्व के कल्याण अर्थ अर्पण करते हो इसी का रिवाज़ भक्ति में मनुष्य ईश्वर अर्थ दान करते हैं। उन्हें फिर उसके बदले दूसरे जन्म में राजाई घर में जन्म मिलता है। और तुम बच्चे संगम पर बाप के मददगार बनते हो तो मनुष्य से देवता बन जाते हो।
गीत:-
तूने रात गंवाई...  
ओम् शान्ति।
बाप बच्चों को समझाते हैं, जब बच्चे समझते हैं तब फिर औरों को समझाते हैं। नहीं समझते तो औरों को समझा नहीं सकते। अगर खुद समझते औरों को समझा नहीं सकते तो गोया कुछ भी नहीं समझते। कोई हुनर सीखता है तो उसको फैलाता है। यह हुनर तो बाप उस्ताद से सीखा जाता है कि मनुष्य से देवता कैसे बनाया जाए। देवतायें जिनके चित्र भी हैं, मनुष्य को देवता बनाते हैं तो गोया वह देवता अभी नहीं हैं। देवताओं के गुण गाये जाते हैं। सर्वगुण सम्पन्न.... यहाँ कोई मनुष्य के तो ऐसे गुण नहीं गाये जाते। मनुष्य मन्दिरों में जाकर देवताओं के गुण गाते हैं। भल पवित्र तो सन्यासी भी हैं परन्तु मनुष्य उन्हों के ऐसे गुण नहीं गाते। वह सन्यासी तो शास्त्र आदि भी सुनाते हैं। देवताओं ने तो कुछ नहीं सुनाया है। वह तो प्रालब्ध भोगते हैं। अगले जन्म में पुरुषार्थ कर मनुष्य से देवता बने थे। तो सन्यासियों आदि कोई में भी देवताओं जैसे गुण नहीं हैं। जहाँ गुण नहीं वहाँ जरूर अवगुण हैं। सतयुग में इसी भारत में यथा राजा रानी तथा प्रजा सर्वगुण सम्पन्न थे। उनमें सभी गुण थे। उन देवताओं के ही गुण गाये जाते हैं। उस समय और धर्म थे नहीं। गुण वाले देवतायें थे सतयुग में, और अवगुण वाले मनुष्य हैं कलियुग में। अब ऐसे अवगुण वाले मनुष्य को देवता कौन बनावे। गाया भी हुआ है मनुष्य से देवता... यह महिमा तो है परमपिता परमात्मा की। हैं तो देवतायें भी मनुष्य, परन्तु उनमें गुण हैं, उनमें अवगुण हैं। गुण प्राप्त होते हैं बाप से, जिसको सतगुरू भी कहते हैं। अवगुण प्राप्त होते हैं माया रावण से। इतने गुणवान फिर अवगुणी कैसे बनते हैं। सर्वगुण सम्पन्न और फिर सर्व अवगुण सम्पन्न कौन बनाते हैं! यह तुम बच्चे जानते हो। गाते भी हैं मुझ निर्गुण हारे में कोई गुण नाही। देवताओं के कितने गुण गाते हैं। इस समय तो वह गुण किसी में नहीं हैं। खान-पान आदि कितना गंदा है। देवतायें हैं वैष्णव सम्‍प्रदाय और इस समय के मनुष्य हैं रावण सम्‍प्रदाय। खान-पान कितना बदल गया है। सिर्फ ड्रेस को नहीं देखना है। देखा जाता है खान-पान और विकारीपन को। बाप खुद कहते हैं मुझे भारत में ही आना पड़ता है। ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मण ब्राह्मणियों द्वारा स्थापना कराता हूँ। यह ब्राह्मणों का यज्ञ है ना। वह विकारी ब्राह्मण कुख वंशावली, यह हैं मुख वंशावली। बहुत फ़र्क है। वो साहूकार लोग जो यज्ञ रचते हैं उसमें जिस्मानी ब्राह्मण होते हैं। यह है बेहद का बाप साहूकारों से साहूकार, राजाओं का राजा। साहूकारों का साहूकार क्यों कहा जाता है? क्योंकि साहूकार भी कहते हैं हमको ईश्वर ने धन दिया है, ईश्वर अर्थ दान करते हैं तो दूसरे जन्म में धनवान बनते हैं। इस समय तुम शिवबाबा को सब कुछ तन-मन-धन अर्पण करते हो। तो कितना ऊंच पद पाते हो।

तुम श्रीमत पर इतने ऊंच कर्म सीखते हो तो तुमको जरूर फल मिलना चाहिए। तन-मन-धन अर्पण करते हो। वह भी ईश्वर अर्थ करते हैं, कोई के थ्रू। यह रिवाज़ भारत में ही है। तो बाप तुमको बहुत अच्छे कर्म सिखलाते हैं। तुम यह कर्तव्य सिर्फ भारत तो क्या, परन्तु सारी दुनिया के कल्याण अर्थ करते हो तो उसका एवजा मिलता है - मनुष्य से देवता बनने का। जो श्रीमत पर जैसा कर्म करते हैं, ऐसा फल मिलता है। हम साक्षी हो देखते रहते हैं। कौन श्रीमत पर चल मनुष्य को देवता बनाने की सेवा करते हैं। कितना जीवन परिवर्तन हो जाता है। श्रीमत पर चलने वाले ब्राह्मण ठहरे। बाप कहते हैं ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों को बैठ राजयोग सिखलाता हूँ - 5 हजार वर्ष की बात है। भारत में ही देवी-देवताओं का राज्य था। चित्र दिखाने चाहिए। चित्रों बिगर समझेंगे पता नहीं यह कौनसा नया धर्म है, जो शायद विलायत से आता है। चित्र दिखाने से समझेंगे यह देवताओं को मानते हैं। तो समझाना है कि श्रीनारायण के अन्तिम 84 वें जन्म में परमपिता परमात्मा ने प्रवेश किया है और राजयोग सिखला रहे हैं। तो कृष्ण की बात उड़ जाती है। यह उनके 84 वें जन्म का भी अन्त है। जो सूर्यवंशी देवता थे उन सभी को आकर फिर से राजयोग सीखना है। ड्रामा अनुसार पुरुषार्थ भी जरूर करेंगे। तुम बच्चे अभी सम्मुख सुन रहे हो और बच्चे फिर इस टेप द्वारा सुनेंगे तो समझेंगे हम भी मात-पिता के साथ फिर सो देवता बन रहे हैं। इस समय 84 वें जन्म में पूरे बेगर जरूर बनना है। आत्मा बाप को सब कुछ सरेन्डर करती है। यह शरीर ही अश्व है, जो स्वाहा होता है। आत्मा खुद बोलती है हम बाप के बने हैं। दूसरा न कोई। मैं आत्मा इस जीव द्वारा परमपिता परमात्मा के डायरेक्शन अनुसार सेवा कर रहा हूँ।

बाप कहते हैं योग भी सिखाओ और सृष्टि चक्र कैसे फिरता है वह भी समझाओ। जिसने सारा चक्र पास किया होगा - वह इन बातों को झट समझेंगे। जो इस चक्र में आने वाला नहीं होगा वह ठहरेगा नहीं। ऐसे नहीं सारी सृष्टि आयेगी! इसमें भी प्रजा ढेर आयेगी। राजा रानी तो एक होता है ना। जैसे लक्ष्मी-नारायण एक गाया जाता है, राम सीता एक गाया जाता है। प्रिन्स प्रिन्सेज तो और भी होंगे। मुख्य तो एक होगा ना। तो ऐसा राजा रानी बनने के लिए बहुत मेहनत करनी है। साक्षी हो देखने से पता पड़ता है - यह साहूकार राजाई कुल का है या गरीब कुल का है। कोई माया से कैसे हारते हैं, जो भागन्ती भी हो जाते हैं। माया एकदम कच्चा खा जाती है इसलिए बाबा पूछते हैं राजी-खुशी हो? माया के थप्पड़ से बेहोश वा बीमार तो नहीं पड़ते हो! ऐसे कोई बीमार हो पड़ते हैं फिर बच्चे उनके पास जाते हैं ज्ञान-योग की संजीवनी बूटी देकर सुरजीत कर देते हैं। ज्ञान और योग में न रहने कारण माया एकदम कला-काया चट कर देती है। श्रीमत छोड़ मनमत पर चल पड़ते हैं। माया एकदम बेहोश कर देती है। वास्तव में संजीवनी बूटी यह ज्ञान की है, इससे माया की बेहोशी उतर जाती है। यह बातें सभी इस समय की हैं। सीतायें भी तुम हो। राम आकर माया रावण से तुमको छुड़ाते हैं। जैसे बच्चों को सिन्ध में छुड़ाया। रावण लोग फिर चुरा ले जाते थे। अभी तुमको फिर माया के चम्बे से सबको छुड़ाना है। बाबा को तो तरस पड़ता है, देखते हैं कैसे माया थप्पड़ लगाए बच्चों की बुद्धि ही एकदम फिरा देती है। राम से बुद्धि फेर रावण की तरफ कर देती है। जैसे एक खिलौना होता है। एक तरफ राम, एक तरफ रावण। इसको कहा जाता है आश्चर्यवत बाप का बनन्ती, फिर रावण का बनन्ती। माया बड़ी दुस्तर है। चूहे मुआफिक काट कर खाना खराब कर देती है, इसलिए श्रीमत कभी छोड़नी नहीं है। कठिन चढ़ाई है ना। अपनी मत माना रावण की मत। उस पर चले तो बहुत घुटका खायेंगे। बहुत बदनामी कराते हैं। ऐसे सभी सेन्टर्स पर हैं। नुकसान फिर भी अपना करते हैं। सर्विस करने वाले रूप-बसन्त छिपे नहीं रहते। दैवी राजधानी स्थापन हो रही है, इसमें सभी अपना-अपना पार्ट जरूर बजायेंगे। दौड़ी लगायेंगे तो अपना कल्याण करेंगे। कल्याण भी एकदम स्वर्ग का मालिक। जैसे माँ बाप तख्तनशीन होते हैं तो बच्चों को भी होना है। बाप को फालो करना है। नहीं तो अपना पद कम कर देंगे। बाबा ने यह चित्र कोई रखने लिए नहीं बनाये हैं। इनसे बहुत सर्विस करनी है। बड़े-बड़े साहूकार लोग लक्ष्मी-नारायण का मन्दिर बनवाते हैं परन्तु यह किसको पता नहीं है कि यह कब आये, इन्हों ने भारत को कैसे सुखी बनाया, जो सभी उन्हों को याद करते हैं।

तुम जानते हो कि मन्दिर होना चाहिए एक दिलवाला का। यह एक ही काफी है। लक्ष्मी-नारायण के मन्दिर से भी क्या होगा! वह कोई कल्याणकारी नहीं हैं। शिव का मन्दिर बनाते हैं, वह भी अर्थ रहित। उनका आक्यूपेशन तो जानते ही नहीं। मन्दिर बनावे, आक्यूपेशन को न जानें तो क्या कहेंगे? जब स्वर्ग में देवतायें हैं तो मन्दिर होते नहीं। जो मन्दिर बनाते हैं, उन्हों से पूछना चाहिए लक्ष्मी-नारायण कब आये थे? उन्हों ने क्या सुख दिया था? कुछ समझा नहीं सकते। इससे सिद्ध है कि जिनमें अवगुण हैं वह गुणवान के मन्दिर बनाते हैं। तो बच्चों को बहुत सर्विस का शौक होना चाहिए। बाबा को सर्विस का बहुत शौक है तब तो ऐसे-ऐसे चित्र बनवाते हैं। भल चित्र शिवबाबा बनवाते हैं परन्तु बुद्धि दोनों की चलती है। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।

रात्रि क्लास - 28-6-68

यहाँ सभी बैठे हैं समझते हैं कि हम आत्मायें हैं, बाप बैठा है। आत्म अभिमानी हो बैठना इसको कहा जाता है। सभी ऐसे नहीं बैठे हैं कि हम आत्मा हैं बाबा के सामने बैठे हैं। अब बाबा ने याद दिलाया है तो स्मृति आयेंगी अटेन्शन देंगे। ऐसे बहुत हैं जिनकी बुद्धि बाहर भागती है। यहाँ बैठे भी जैसे कि कान बन्द हैं। बुद्धि बाहर में कहाँ न कहाँ दौड़ती रहती है। बच्चे जो बाप की याद में बैठे हैं वे कमाई कर रहे हैं। बहुतों का बुद्धि योग बाहर में रहता है, वह जैसे कि यात्रा में नहीं हैं। टाइम वेस्ट होता है। बाप को देखने से भी बाबा याद पड़ेगा। नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार तो है ही। कोई कोई को पक्की आदत पड़ जाती है। हम आत्मा हैं, शरीर नहीं हैं। बाप नॉलेजफुल है तो बच्चों को भी नॉलेज आ जाती है। अभी वापिस जाना है। चक्र पूरा होता है अभी पुरुषार्थ करना है। बहुत गई थोड़ी रही......इम्तिहान के दिनों में फिर बहुत पुरुषार्थ करने लग पड़ेंगे। समझेंगे अगर हम पुरुषार्थ नहीं करेंगे तो नापास हो जायेंगे। पद भी बहुत कम हो जायेगा। बच्चों का पुरुषार्थ तो चलता ही रहता है। देह अभिमान कारण विकर्म होंगे। इसका सौ गुणा दण्ड हो जायेगा क्योंकि हमारी निन्दा कराते हैं। ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए जो बाप का नाम बदनाम हो इसलिए गाते हैं सद्गुरु के निन्दक ठौर न पावें। ठौर माना बादशाही। पढ़ाने वाला भी बाप है। और कहाँ भी सत्संग में एम आब्जेक्ट नहीं है। यह है हमारा राजयोग। और कोई ऐसे मुख से कुछ कह न सके कि हम राजयोग सिखलाते हैं। वह तो समझते हैं शान्ति में ही सुख है? वहाँ तो न दु:ख, न सुख की बात है। शान्ति ही शान्ति है। फिर समझा जाता है इनकी तकदीर में कम है। सभी से तकदीर ऊंची उनकी है जो पहले से पार्ट बजाते हैं। वहाँ उनको यह ज्ञान नहीं रहता। वहाँ संकल्प ही नहीं चलेगा। बच्चे जानते हैं हम सभी अवतार लेते हैं। भिन्न भिन्न नाम रूप में आते हैं। यह ड्रामा है ना। हम आत्मायें शरीर धारण कर इसमें पार्ट बजाती हैं। वह सारा राज़ बाप बैठ समझाते हैं। तुम बच्चों को अन्दर में अतीन्द्रिय सुख रहता है। अन्दर में खुशी रहती है। कहेंगे यह देही-अभिमानी है। बाप समझाते भी हैं तुम स्टूडेन्ट हो। जानते हो हम देवता स्वर्ग के मालिक बनने वाले हैं। सिर्फ देवता भी नहीं। हम विश्व के मालिक बनने वाले हैं। यह अवस्था स्थाई तब रहेगी जब कर्मातीत अवस्था होगी। ड्रामा प्लैन अनुसार होनी है ज़रूर। तुम समझते हो हम ईश्वरीय परिवार में हैं। स्वर्ग की बादशाही मिलनी है ज़रूर। जो जास्ती सर्विस करते हैं, बहुतों का कल्याण करते हैं तो ज़रूर ऊंच पद मिलेगा। बाबा ने समझाया है यह योग की बैठक यहाँ हो सकती है। बाहर सेन्टर पर ऐसे नहीं हो सकती है। चार बजे आना, नेष्टा में बैठना, वहाँ कैसे हो सकता है। नहीं। सेन्टर में रहने वाले भल बैठे। बाहर वाले को भूले चुके भी कहना नहीं है। समय ऐसा नहीं है। यह यहाँ ठीक है। घर में ही बैठे हैं। वहाँ तो बाहर से आना पड़ता है। यह सिर्फ यहाँ के लिये है। बुद्धि में ज्ञान धारण होना चाहिए। हम आत्मा हैं। उनका यह अकाल तख्त है। टेव पड़ जानी चाहिए। हम भाई-भाई हैं, भाई से हम बात करते हैं। अपने को आत्मा समझ बाप को याद करो तो विकर्म विनाश हो जायें। अच्छा!

मीठे मीठे रूहानी बच्चों को रूहानी बापदादा का यादप्यार, गुडनाईट और नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:
1) ज्ञान-योग की संजीवनी बूटी से स्वयं को माया की बेहोशी से बचाते रहना है। मनमत पर कभी नहीं चलना है।
2) रूप-बसन्त बन सर्विस करनी है। मात-पिता को फालो कर तख्तनशीन बनना है।
वरदान:
दिव्य बुद्धि और रूहानी दृष्टि के वरदान द्वारा नम्बर वन लेने वाले श्रेष्ठ पुरुषार्थी भव!
हर एक ब्राह्मण बच्चे को दिव्य बुद्धि और रूहानी दृष्टि का वरदान जन्म से ही प्राप्त होता है। यह वरदान ही ब्राह्मण जीवन का फाउण्डेशन है। इन्हीं दोनों बातों के आधार पर संगमयुगी पुरुषार्थियों का नम्बर बनता है। इन्हें हर संकल्प, बोल और कर्म में जो जितना यूज़ करता है उतना ही नम्बर आगे लेता है। रूहानी दृष्टि से वृत्ति और कृति स्वत: बदल जाती है। दिव्य बुद्धि द्वारा यथार्थ निर्णय करने से स्वयं, सेवा, संबंध सम्पर्क यथार्थ शक्तिशाली बन जाता है।
स्लोगन:
फीचर्स में रूहानियत की झलक तब आयेगी जब संकल्प, बोल और कर्म में पवित्रता की धारणा होगी।